Saturday, May 11, 2019

माँ को प्रणाम 


हर जगह शब्दों से बुन रहा जंजाल है
किसी के अपने शब्द उसकी जीत का हाल हैं 

कोई सादे शब्द बोलकर विश्वास पाता है
कोई शब्दों से खेल वाह वाह पाता है 

पर माँ वो है, जिसका हर शब्द ममता का भाव है
उसकी डांट में परवाह और दुआ में मजधार की नाव है 

खुशियां फैलाती वो गम को छुपाती है
खुद को हमेशा मजबूत दिखाती है 

कितनी बार जीत कर हारी है माँ
एक छोटी सी हँसी पर बलिहारी है माँ 

ज़रुरत उसे भी है कोई उसकी परवाह करे
कभी सहलाये और कभी आगाह करे 

 
 
 

Friday, August 31, 2018

uff ye traffic

उफ़ ये  ट्रैफिक

दिन शुरू होते जब आपका सामना यातायात से होता है
गाड़ियों में बैठे लोग सोते लुढ़के नज़र आते हैं
सिलसिला गालियों का शुरू होता है
जब छोटे वाहन अचानक से कट मार गाड़ी के सामने आ जाते हैं

कोई गाड़ी इधर से तो कोई गाडी विभक्त के ऊपर चढ़ाता है
हर कोई पहले अपने साहिल पहुंचना चाहता है
५मील का रास्ता बढ़कर २०मील हो जाता है
हर गाडी में हताश चेहरा नज़र आता है

यातायात के कारण केवल गाड़ियों का बढ़ना या अचानक से खराब होना नहीं है
कभी सडकों की अनियोजित मरम्मत शुरू कर देना है
कभी बिना किसी कारण आपको एक स्थान पे रोका जाना है
और कभी काले घने बादलों का जम के बरसना है

यहां कारण समाप्त नहीं होते हैं
कभी सालों के लिए मेट्रो रेल का काम शुरू हो जाता है
कभी कोई आम आदमी यातायात अफसर बन जाता है
और कभी तो अचानक से रास्ता ही मोड़ दिया जाता है

यातायात के आग़ोश में जब घंटों बिताते हैं
सर के बाल बस ऐसे सफ़ेद होते नज़र आते हैं
चैन की साँस भरना चाहते हैं
पर लगता है सड़कों पे सिर्फ गाडी खिसकाते हैं

कभी पुरानी नगमें तो कभी नए गीत बजाते हैं
तो कभी तानसेन को बुलाते हैं
जो यातायात राग से सड़कों से जाम हटा दे
हमें जल्दी अपने साहिल पहुँचादे

रुके रुके गाड़ी चलाते कभी चने चबाते हैं
कार पूलिंग दोस्त बन जाएँ तो बचपन के किस्से सुनाते हैं
जब २०-२५ मिनट एक इंच भी नहीं पाते हैं
तब फिर यातायात का दुखड़ा बक-बकाते हैं

साहसी ख्याल  दिमाग की कुंडी खट-खटाते हैं
कभी लम्बे भररतोलन यन्त्र से खुद को उठवाकर पहुँचवाना है
कभी हेलीकॉप्टर में कभी रोप पे स्लाइड करके जाना है
कभी तो पंछी बन जाने का ही सपना दिखाई दे जाता है

कभी राम का कभी कृष्ण का जाप करते हैं
घर से टेलीफोन काल आती है
"यातायात में फँसे हैं" यही कह पाते हैं
रोज़ाना रास्ते का हाल घर वालों को बताते हैं

 

Thursday, August 20, 2015

सब याद आता है हमें------



शाम को ऑफिस से घर पारी लेकर आना
अलग अलग स्टाइल में आपसे फोटो खिचवाना
आपके स्कूटर पे हमें घुमाना
चश्मा लगाकर श्रीदेवी कहलाना

दिवाली पे भाई को पटाखे दिलवाना
आम के मौसम में आम काटके खिलाना
होली पे रंग और पिचकारी दिलवाना
शाम कोको आपके पैसे से पॉकेट भरवाना

हर लम्हे पे आपका साथ आना
पहले स्कूल और फॉर कॉलेज लेकर जाना
पेपर्स के दौरान हौंसला बढ़ाना
छुट्टियों पे घर पे नाचना और गाना

किसी खाने की चीज़ पे कभी मुस्काॅना और कभी मुँह चढ़ाना
अपनी पकाई चीज़ की तारीफ़ करना और करवाना
बैठे बैठे सो जाना और नींद में बतियाना
दिन भर पानी और चाय की ख्वाइश जताना

हर किसी  महफ़िल में गाने सुनाना
जीना अपनी शर्तों पे, हर शौक आज़माना
हर किसी का अच्छा चाहना
दिल खोल के सबको दावतें खिलाना

Thursday, April 30, 2015

Badalte Mausam


 
प्रक्रति पे जब जब हमने प्रहार किया
भूकम्प रूपी केहर नज़र आया दोस्तों
कोसते थे जो मनचाहा भोजन न मिलने के लिए
सूखी रोटी प्यार से खाते पाये गए दोस्तों

हवा के रुख को देख पानी का रुख ऐसा हुआ
बूंदे नाचती नज़र आई दोस्तों
पेड़ पे लगे पत्ते नीचे गिरने से डरने लगे
दौड़ते भागते नज़र आये दोस्तों

जीवन में ऐसी मौसमी आई
कि छोटे छोटे पल जीने की चाह हुई दोस्तों
जो बारिश बिन चाय के अच्छी नहीं लगी कभी
बंद में भी उमंगें भरने लगी दोस्तों
 

Thursday, June 23, 2011

भूलने की आदत

कितनी अच्छी है यह भूलने की आदत
न याद रहती है बीवी न बीवी की क़यामत

सब्जी लेने जाते, तो बीवी को भूल आते
चाभी लगा स्कूटर किसी और का घर ले आते
क्यूंकि भूलने की आदत बताते
तो घर की डांट से भी बच जाते

अगर चाय के साथ पकोड़े खाने जाते
केवल चाय के पैसे देकर आते
और अगर पुराने दोस्त मिल जाते
तब तो फ्री की चाय पी कर आते

जब कभी खाना बनाने जाते
कभी चाय में चीनी डालना भूल जाते
तो कभी सब्जी में नमक दो बार दाल जाते
अब भूलने की आदत है तो फिर बच जाते

पिताजी का फ़ोन आये तो ससुरजी समझ बतियाते
मेनेजर का फ़ोन आये तो दोस्त समझ गाली दे डालते
बीवी के फ़ोन को तो काल सेंटर वाली समझ बतियाते
पर भूलने की आदत से फिर बच जाते

ऑफिस से घर आते वक्त, कभी पडोसी के घर घुस जाते
वहां चाय पीते पीते उनके बच्चे को अपना समझ गोदी उठाते
जो बच्चा चिल्लाय तो डांट भी लगाते
अंकल को भूलने की आदत है, इसलिए बच जाते

अरे बड़ी अच्छी है यह आदत........

दिन भर के लड़ाई झगडे पल में भूल जाते
गम का फ़साना कभी न गुनगुनाते
हमेशा खुश-खुश नज़र आते
भूलने की आदत है इसलिए टेंशन लेने से बच जाते




Monday, June 20, 2011

यात्रा घर से ऑफिस की

अधखुली आँखों से नींद से जगना
सूर्योदय से पहले पेट पूजा का इंतज़ाम करना
कभी ब्रेड, कभी अंडे, बहुत हुआ तो पराठे
टिफिन भरने का इंतज़ाम करना

थोड़ी योगा करके कमार कसना
फिर ऑफिस की ओर प्रस्थान के लिए तैयार होना
इसी बीच में बंगाली बाई से हिंदी में समझना समझाना
और बस बाय बाय कहते हुए घर से निकल पड़ना

अब शुरु करते हैं बस की गाथा
जो ड्राईवर रोकने पर रुके नहीं, उसे कोसना
फिर खुद को तसल्ली देते हुए बस स्टॉप
और बस के इंतज़ार में टाइम पास करना
टाइम पास के लिए.......
कभी आते जाते लोगों के बारे में सोचना
तो कभी लहराते हुए मस्त पेड़ पौधों को ताकना
और फिर पहली नॉन-ऐसी आती बस में चड़ना
कम भीड़ हुई तो बैठने की और ज्यादा भीड़ में खड़े रहने की जगह ढूंढना



अपने स्टॉप को देख बस से उतरने के लिए भी तैयारी करना
आगे खड़े मोटे पटलों के बीच से सिकुड़ के निकलना
जो कभी लैपटॉप बैग साथ में तब तो बस गिरो न ऐसे संभालना
और नीचे उतर कर सांस भरना




अरे अभी तो यह पहली बस यात्रा का वर्णन था......

अब दूसरी बस होगी तो ऐसी पर उसे अगर है पकड़ना
आती दिखे तो चलना और जाती दिखे तो भागना
इतना ही नहीं, बस जाएगी किधर से, इसे भी बूझना
और अगर यह छूट गयी तो दूसरी का इंतज़ार करना

चलो पहली या दूसरी बारी में बस में पीछे बैठ जाना
कंडक्टर को पास दिखाकर आगे प्रस्थान करना
अब यात्रा है लम्बी, तो टाइम पास करने के बारे में सोचना
अब नींद नहीं आई तो, या तो किसी से बतियाना, गाने सुनना या फिर रातों को निहारना

अगर आँख लग जाए तो सोते रह जाने के दर से, नींद में आँख खोल कर देखना
स्टॉप आने के पहले ही बस के दरवाजे पे खड़े हो जाना
क्योंकि यहाँ उतरना मतलब बस में चढ़ने वालों से जंग करना
फिर नीचे उतारकर सांस भरना

अरे अभी तो तीसरी बस यात्रा का वर्णन बाकी है........

फिर नींद में भागना और बस पकड़ना
फ्री के झूलों के मज़े लूटना
रुमाल से बस और ट्रक के धुंए नाक में घुसने से बचाना
और स्टॉप आने पर ऑफिस तक चल कर जाना

ऑफिस में काम करने के बाद, वापसी की यात्रा....

यही तीन बस, धक्के मुक्की, सोते जागते और कुछ खाते
घर पहुचने की हल चल के होते
लड़कते फुदकते घर पहुँच जाते
शाम की चाय में बिस्कुट दुबोके खाते











Thursday, June 16, 2011

मेरा परिचय

परिचय क्या दूं मै अपना
पहचान बनाना बाक़ी है
चारू चंद्रिमा की चम् चम् है
तारे चुनना बाकी है

कलि बनी है तनी तनी है
मुखलित होना बाकी है
इसके अन्दर की सुगंध को
सुरभित होना बाकी है

हवा चली है, रेत उड़ी है
राह ढूंढना बाकी है
केतु कर्म का कर में लेकर
आगे बदना बाकी है

काव्या की कविता गंगा की
धरा बहना बाकी है
काव्या की कविता बूंदों की
वर्षा होनी बाक़ी है