Thursday, June 23, 2011

भूलने की आदत

कितनी अच्छी है यह भूलने की आदत
न याद रहती है बीवी न बीवी की क़यामत

सब्जी लेने जाते, तो बीवी को भूल आते
चाभी लगा स्कूटर किसी और का घर ले आते
क्यूंकि भूलने की आदत बताते
तो घर की डांट से भी बच जाते

अगर चाय के साथ पकोड़े खाने जाते
केवल चाय के पैसे देकर आते
और अगर पुराने दोस्त मिल जाते
तब तो फ्री की चाय पी कर आते

जब कभी खाना बनाने जाते
कभी चाय में चीनी डालना भूल जाते
तो कभी सब्जी में नमक दो बार दाल जाते
अब भूलने की आदत है तो फिर बच जाते

पिताजी का फ़ोन आये तो ससुरजी समझ बतियाते
मेनेजर का फ़ोन आये तो दोस्त समझ गाली दे डालते
बीवी के फ़ोन को तो काल सेंटर वाली समझ बतियाते
पर भूलने की आदत से फिर बच जाते

ऑफिस से घर आते वक्त, कभी पडोसी के घर घुस जाते
वहां चाय पीते पीते उनके बच्चे को अपना समझ गोदी उठाते
जो बच्चा चिल्लाय तो डांट भी लगाते
अंकल को भूलने की आदत है, इसलिए बच जाते

अरे बड़ी अच्छी है यह आदत........

दिन भर के लड़ाई झगडे पल में भूल जाते
गम का फ़साना कभी न गुनगुनाते
हमेशा खुश-खुश नज़र आते
भूलने की आदत है इसलिए टेंशन लेने से बच जाते




Monday, June 20, 2011

यात्रा घर से ऑफिस की

अधखुली आँखों से नींद से जगना
सूर्योदय से पहले पेट पूजा का इंतज़ाम करना
कभी ब्रेड, कभी अंडे, बहुत हुआ तो पराठे
टिफिन भरने का इंतज़ाम करना

थोड़ी योगा करके कमार कसना
फिर ऑफिस की ओर प्रस्थान के लिए तैयार होना
इसी बीच में बंगाली बाई से हिंदी में समझना समझाना
और बस बाय बाय कहते हुए घर से निकल पड़ना

अब शुरु करते हैं बस की गाथा
जो ड्राईवर रोकने पर रुके नहीं, उसे कोसना
फिर खुद को तसल्ली देते हुए बस स्टॉप
और बस के इंतज़ार में टाइम पास करना
टाइम पास के लिए.......
कभी आते जाते लोगों के बारे में सोचना
तो कभी लहराते हुए मस्त पेड़ पौधों को ताकना
और फिर पहली नॉन-ऐसी आती बस में चड़ना
कम भीड़ हुई तो बैठने की और ज्यादा भीड़ में खड़े रहने की जगह ढूंढना



अपने स्टॉप को देख बस से उतरने के लिए भी तैयारी करना
आगे खड़े मोटे पटलों के बीच से सिकुड़ के निकलना
जो कभी लैपटॉप बैग साथ में तब तो बस गिरो न ऐसे संभालना
और नीचे उतर कर सांस भरना




अरे अभी तो यह पहली बस यात्रा का वर्णन था......

अब दूसरी बस होगी तो ऐसी पर उसे अगर है पकड़ना
आती दिखे तो चलना और जाती दिखे तो भागना
इतना ही नहीं, बस जाएगी किधर से, इसे भी बूझना
और अगर यह छूट गयी तो दूसरी का इंतज़ार करना

चलो पहली या दूसरी बारी में बस में पीछे बैठ जाना
कंडक्टर को पास दिखाकर आगे प्रस्थान करना
अब यात्रा है लम्बी, तो टाइम पास करने के बारे में सोचना
अब नींद नहीं आई तो, या तो किसी से बतियाना, गाने सुनना या फिर रातों को निहारना

अगर आँख लग जाए तो सोते रह जाने के दर से, नींद में आँख खोल कर देखना
स्टॉप आने के पहले ही बस के दरवाजे पे खड़े हो जाना
क्योंकि यहाँ उतरना मतलब बस में चढ़ने वालों से जंग करना
फिर नीचे उतारकर सांस भरना

अरे अभी तो तीसरी बस यात्रा का वर्णन बाकी है........

फिर नींद में भागना और बस पकड़ना
फ्री के झूलों के मज़े लूटना
रुमाल से बस और ट्रक के धुंए नाक में घुसने से बचाना
और स्टॉप आने पर ऑफिस तक चल कर जाना

ऑफिस में काम करने के बाद, वापसी की यात्रा....

यही तीन बस, धक्के मुक्की, सोते जागते और कुछ खाते
घर पहुचने की हल चल के होते
लड़कते फुदकते घर पहुँच जाते
शाम की चाय में बिस्कुट दुबोके खाते











Thursday, June 16, 2011

मेरा परिचय

परिचय क्या दूं मै अपना
पहचान बनाना बाक़ी है
चारू चंद्रिमा की चम् चम् है
तारे चुनना बाकी है

कलि बनी है तनी तनी है
मुखलित होना बाकी है
इसके अन्दर की सुगंध को
सुरभित होना बाकी है

हवा चली है, रेत उड़ी है
राह ढूंढना बाकी है
केतु कर्म का कर में लेकर
आगे बदना बाकी है

काव्या की कविता गंगा की
धरा बहना बाकी है
काव्या की कविता बूंदों की
वर्षा होनी बाक़ी है

याद

वो कौन है जो आती है
आती है आती है आती है
धीरे से मुक्झ्को जगाती है
आती है आती है आती है

ममता का कलरव वो करती है
मीठी सी बंसी बजाती है
चम् चम् करती आती है
आवाज़ किसी की न आती है

आती है आती है आती है

वो चिड़ियों की चेहेल, वो परियों की पहल
वो साथ में अपने लाती है
वो रंगों का संगम, वो भवरों का गुंजन
गुनगुनाती आती है

आती है आती है आती है

सपनों की दुनिया ले जाती है
हमसे मिलना वो चाहती है
रात अकेली आती है
नया सवेरा दिखाती है

आती है आती है आती है

झूमती हवाओं के साथ में हर दम, वो याद ही है जो आती है
पल पल मुझको सताती है
आँख मिचोली खिलाती है
प्यार की बूंदे पिलाती है

आती है आती है आती है




Monday, June 13, 2011

मेरे सपने

पंखों में हैं रंग जितने
सागर में हैं सीप जितने
जीवन के हैं कर्ण जितने
मेरे भी हैं सपने उतने

आसमान में तारे जितने
फूलों पे हैं भवरें जितने
खिलते हुए चेहरे हैं जितने
मेरे भी हैं सपने उतने

राखी के हैं धागे जितने
ह्रदय हवन में शोले जितने
कोयल कंठ में स्वर हैं जितने
मेरे भी सपने उतने

इन सपनों के पर जब लगते
बनके पंची जब ये उड़ते
पीछा कटे हम नहीं थकते
मेरे भी हैं सपने उतने

जहाँ पाया तुम ही तुम

जय मां

हर आहट से लगता है तुम हो
तन में तुम समाती हो माँ में भी तुम हो
आँख मेरी रोती है पलकों पे तुम हो
दर्द मेरे होता है बातों में तुम हो
जीवन ये तुम से है साँसों में तुम हो तुम हो तुम हो

बारिश जो होती है बादल में तुम हो
चाँद जो खिलता है रातों में तुम हो
सूरज की किरणों की तेज़ी में तुम हो
पूजा के दिए की लौ में भी तुम हो
धड़कन ये तुमसे है दिल में ही तुम हो तुम हो तुम हो

फूल जो खिलते हैं खुशबू में तुम हो
पंची जो गाते हैं गीतों में तुम हो
झीलों के पानी की ठंडक में तुम हो
वीणा के तारों के रागों में तुम हो
सोच यह तुमसे है ख्यालों में तुम हो तुम हो तुम हो

पायल के घुँघरू की चन चन में तुम हो
लहरों की तरंगों की उड़ानों में तुम हो
काव्य की इन पंक्तियों के अक्षर में तुम हो
भजनों की भाषा की श्रद्धा में तुम हो
बोलूँ मैं क्या मेरे अधरों पे तुम हो तुम हो तुम हो